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Monday 14/04/25, week 16
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क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....(कविता)

अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)


मेरी बात, (रचना - 15,क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....)


बढ़ती उम्र के साथ,
गुजर रहा है वक्त धीरे - धीरे,
मुट्ठी से फिसलती हुई रेत की मानिंद,
नहीं रखता हूं वास्ता अब मैं ख्वाहिशें से,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

बालों की सफेदी और झुर्रियां,
चिढ़ाने सी लगी है मुझे,
जिह्वा के स्वाद का फीकापन,
नहीं लगता है मुझे अब बुरा,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

अपने कर्तव्यबोध के साथ,
जिम्मेदारियों के बोझ तले,
प्रारंभ तो नहीं अंत की ओर अग्रसर,
सपनों से कर लिया है किनारा मैंने,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

सब देखता हूं,सब समझता हूं,
प्रतिकार के शब्दों को समझा दिया है,
कि न हो मुखरित अब,
प्रयास  नहीं होंगे फलित अब तुम्हारे,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

हर रोज अख़बार के पन्नों की, 
खबरों से खुद को साझा करके,
झांक कर अपने अतीत में,
जीवंत हो उठता हूं मैं भी,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

किराशन,राशन,आटा,चावल,दाल,
और सब्जियों के गणित में, 
सभी sin,cos और tan भूल चुका हूं मैं,
अब खर्चे और जेब का बजट नहीं है बिगडता,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

रिश्ते जो सींचे थे बहुत अरमानों से मैंने,
खोखले निकले मुझे संभालने में,
देख कर स्वार्थ का यह रूप,
कर लेता हूं स्वयं से ही कुछ बातें,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

नहीं रहीं कोई कामना अब शेष,
जो बची थी वो हृदय में ही है दबी,
हर बार चढ़ा कर श्रद्धांजलि के पुष्प उनपर,
निकल पड़ता हूं अपने राह पर फिर से,
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....
क्योंकि सी लिए हैं,होंठ मैंने....

रवि चंद्र गौड़








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