मेरी बात ( रचना -4, भाव )
जाकी रही भावना जैसी
रघु मूरति देखी तिन तैसी
भाव शब्द का बेहतर प्रस्तुीकरण हरिवंश राय बच्चन जी ने मधुशाला में इस तरह किया है : -
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।
देशप्रेम में इस शब्द का बखूबी प्रयोग राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने किया है :
जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं.
कबीर ने भी सतगुरु की महिमा का भाव बताते हुए कहा है :-
' सब जग ईश्वररूप है , भलो बुरो नहिं कोय ' - ऐसा भाव यदि एक साधक का हो जाय तो यह शिकायत मिट जायगी कि मन भगवान में लगता नहीं !
जब हमारे मन में किसी के प्रति कोई भी भाव होता है, हमें दिखाई भी उसी रूप में देता है। जब हमारी नजऱ अच्छी होती है तो हमें सारा कुछ ही अच्छा नजऱ आता है। जब किसी के प्रति हमारे मन में नफऱत का भाव आता है तो दूसरे का नुक्सान कम होता है बल्कि अपना नुक्सान ज़्यादा होता है।संत-महात्मा प्यार को संसार में बढ़ाते हुए उपकार के भाव के साथ जीवन जीते हैं। उन्होंने फरमाया कि मनुष्य का जीवन मिला है तो इंसानियत को कायम रखना चाहिए। हरेक को बनाने वाला परमात्मा ही है। इस लिए सभी के प्रति प्यार, नम्रता, सहनशीलता के भाव पैदा हो जाते हैं। मन के बदलने साथ ही जीवन बदलता है। दिखावे के लिए जीवन में बदलाव नहीं लाना है। परमात्मा हर जगह समाया हुआ है, इस लिए परमात्मा के गुणों को अपने जीवन में अपनाना है। जीवन में कैसा सी भी स्थिति हो हमेशा ही एक ही सी मन की स्थिति बनी रहती है, यह केवल और केवल इस निरंकार प्रभु को जान कर इसकी जानकारी करके ही संभव है।
उपनिषद् कहते हैं देखने वाले को देखना ही साक्षी भाव है। वेदों का सार उपनिषद्, उपनिषदों का सार गीता और गीता का सार ध्यान को माना गया है। ध्यान में श्रेष्ठ है 'साक्षी भाव'। साक्षी भाव को ही बौद्ध विपश्यना ध्यान कहते हैं। विपश्यना सम्यक ज्ञान है। अर्थात जो जैसा है उसे वैसा ही होशपूर्ण देखना विपश्यना है। अतीत के दुःख और सुख तथा भविष्य की कल्पनाओं को छोड़कर विपश्यना पूर्णत: वर्तमान में जीने की विधि है।
किसी भी रोग के मूल में व्यक्ति के भाव ही होते हैं। शरीर की विभिन्न ऊर्जाओं का संचालन भावों के द्वारा ही प्रतिपादित होता है। भावों के कारण ही ऊर्जाएं सन्तुलित रहती हैं और ऊर्जाओं का असन्तुलन ही रोगों का मूल कारण बनता है। रोगों की शुरुआत भीतर से होती है और समय के साथ-साथ शरीर में रोग बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है।
महाभारत में कहा गया है—
‘शोकस्थान सहस्राणि भयस्थानशतानि च, दिवसे दिवसे मूढ़माविशंति न पंडितम्।’
हजारों शोक के स्थान (अवसर) तथा सैकड़ों भय के अवसर प्रतिदिन प्रतिपल मूढ़ मस्तिष्क में आविष्ट होते हैं। सत् और असत् को पहचान लेने वाली पण्डा नाम की बुद्धि जिस भाग्यवान मनुष्य की हो जाए उस पण्डित को ये शोक-भय कभी नहीं सताते।
अमेरिकी शोधकर्ता रोजलिन ब्रूयेरे ने अपनी पुस्तक ‘व्हील्स ऑफ लाइट’ में लिखा है कि अब तक के सभी परीक्षण इस बात को स्वीकारते हैं कि शरीर में गठिया, रक्तचाप और हृदयरोग जैसे रोगों का कारण हमारे भाव ही हैं। इनमें भी क्रोध और भय सबसे प्रमुख हैं।
3 Comments
Sundar rachna
ReplyDeleteअतिशय उच्चकोटि की रचना जो लेखक के वृहद ज्ञान एवं लेखन भाव को प्रदर्शित करती है।
ReplyDeleteधन्यवाद सर
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