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भाव (आलेख)

अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)


मेरी बात ( रचना -4, भाव )

" भाव "शब्द से हम सभी परिचित हैं। हमारा जीवन इस शब्द के इर्द - गिर्द ही घूमता रहता है। जीवन के प्रारम्भ से अंत तक हम सभी इस शब्द से दो - चार होते रहते हैं। गली - मुहल्ले से ले कर देश - विदेश तक " भाव " शब्द के ही जलवे है।
बढ़ती मंहगाई और इस शब्द में काफी गहरा संबंध है। थोड़ी कीमत बढ़ने के साथ सभी छोटे - बड़े व्यवसाय में तो इस शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से होने लगता है। विदेशी व्यापार में भी इस शब्द का प्रयोग आम बात है।
सामान्य जीवन की बात करें तो किसी से नाराजगी की स्थिति में भी हम अक्सर यह कह ही जाते हैं कि बहुत भाव बढ़ गया है। प्रेमी - प्रेमिकाओं में यदि किसी का झगड़ा हो तो ये शब्द झगड़े की शोभा बढ़ाने के लिए स्वतः ही मुखारविंद से प्रस्फुटित होने लगता है।
कुछ लोगों का तो ये तकियाकलाम होता है जिनका प्रत्येक वाक्य इस शब्द के बिना पूरा ही नहीं होता है। उसका प्रयोग वो इतनी कुशलता से करते हैं कि मानो फूल झड़ रहे हो उनके मुंह से। सुबह जागने से ले कर सोने तक कम से कम  100 बार भाव शब्द का उच्चारण न कर लें तब तक परमशान्ति का अनुभव ही नहीं होता।
भाव की बदौलत ही मां अपने रूठे बच्चे को झट से मना लेती है। 
यह भाव  ही होते हैं,जो प्रत्येक ५ वर्षों पर सरकार बनाते है। जनता को न चाहते हुए मतदान करने की शक्ति देते है। सुशासन और कुशासन का अंतर भी भाव के कारण ही दिखता है। भाव के अनेकों रूप है - मातृभाव, पितृ भाव, भ्रातृ भाव, दयाभाव, करुणा भाव, प्रेम भाव, सात्विक भाव, तामसिक भाव,राजसी भाव आदि।
एक कुशल गृहिणी जिस भाव से भोजन का निर्माण करती हैं,उसी भाव से उसके परिवार के सदस्यों का जीवन पोषित होता है। उसी प्रकार एक गर्भवती महिला जैसे भाव को हृदय में रखती हैं, उसका सीधा प्रभाव उसके शिशु पर पड़ता है। एक किसान जिस भाव से बीजों को बोता है, उसी के अनुरूप उसकी फसल होती हैं। एक विद्यार्थी जिस भाव से अध्ययन करता है, उसी के अनुरूप परिणाम की भी प्राप्ति होती हैं। एक कवि की कविता उसकी कल्पना भाव का सकारात्मक परिणाम होती हैं। जीवन की प्रत्येक इच्छा भाव से ही जन्म लेती हैं। जीवन को हर पल सुखमय बनाने की जरूरत ही हर प्रकार के भाव का मूल है। 

 कई बार ये शब्द हम परमात्मा के समीप तक ले जाने का वाहक बन जाता है, इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरिमानस में कहा भी है : 

 जाकी रही भावना जैसी
रघु मूरति देखी तिन तैसी

भाव शब्द का बेहतर प्रस्तुीकरण हरिवंश राय बच्चन जी ने मधुशाला में इस तरह किया है : -

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।

देशप्रेम में इस शब्द का बखूबी प्रयोग राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने किया है : 

जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं.

 वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं.'

कबीर ने भी  सतगुरु की महिमा का भाव बताते हुए कहा है :-

सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।

धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥


' सब जग ईश्वररूप है , भलो बुरो नहिं कोय ' - ऐसा भाव यदि एक साधक का  हो जाय तो यह शिकायत मिट जायगी कि मन भगवान में लगता नहीं ! 

जब हमारे मन में किसी के प्रति कोई भी भाव होता है, हमें दिखाई भी उसी रूप में देता है। जब हमारी नजऱ अच्छी होती है तो हमें सारा कुछ ही अच्छा नजऱ आता है। जब किसी के प्रति हमारे मन में नफऱत का भाव आता है तो दूसरे का नुक्सान कम होता है बल्कि अपना नुक्सान ज़्यादा होता है।संत-महात्मा प्यार को संसार में बढ़ाते हुए उपकार के भाव के साथ जीवन जीते हैं। उन्होंने फरमाया कि मनुष्य का जीवन मिला है तो इंसानियत को कायम रखना चाहिए। हरेक को बनाने वाला परमात्मा ही है। इस लिए सभी के प्रति प्यार, नम्रता, सहनशीलता के भाव पैदा हो जाते हैं। मन के बदलने साथ ही जीवन बदलता है। दिखावे के लिए जीवन में बदलाव नहीं लाना है। परमात्मा हर जगह समाया हुआ है, इस लिए परमात्मा के गुणों को अपने जीवन में अपनाना है। जीवन में कैसा सी भी स्थिति हो हमेशा ही एक ही सी मन की स्थिति बनी रहती है, यह केवल और केवल इस निरंकार प्रभु को जान कर इसकी जानकारी करके ही संभव है।

उपनिषद् कहते हैं देखने वाले को देखना ही साक्षी भाव है। वेदों का सार उपनिषद्, उपनिषदों का सार गीता और गीता का सार ध्यान को माना गया है। ध्यान में श्रेष्ठ है 'साक्षी भाव'। साक्षी भाव को ही बौद्ध विपश्यना ध्यान कहते हैं। विपश्यना सम्यक ज्ञान है। अर्थात जो जैसा है उसे वैसा ही होशपूर्ण देखना विपश्यना है। अतीत के दुःख और सुख तथा भविष्य की कल्पनाओं को छोड़कर विपश्यना पूर्णत: वर्तमान में जीने की विधि है। 

किसी भी रोग के मूल में व्यक्ति के भाव ही होते हैं। शरीर की विभिन्न ऊर्जाओं का संचालन भावों के द्वारा ही प्रतिपादित होता है। भावों के कारण ही ऊर्जाएं सन्तुलित रहती हैं और ऊर्जाओं का असन्तुलन ही रोगों का मूल कारण बनता है। रोगों की शुरुआत भीतर से होती है और समय के साथ-साथ शरीर में रोग बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है। 

महाभारत में कहा गया है—

शोकस्थान सहस्राणि भयस्थानशतानि च, दिवसे दिवसे मूढ़माविशंति न पंडितम्।’ 

हजारों शोक के स्थान (अवसर) तथा सैकड़ों भय के अवसर प्रतिदिन प्रतिपल मूढ़ मस्तिष्क में आविष्ट होते हैं। सत् और असत् को पहचान लेने वाली पण्डा नाम की बुद्धि जिस भाग्यवान मनुष्य की हो जाए उस पण्डित को ये शोक-भय कभी नहीं सताते। 

 अमेरिकी शोधकर्ता रोजलिन ब्रूयेरे ने अपनी पुस्तक ‘व्हील्स ऑफ लाइट’ में लिखा है कि अब तक के सभी परीक्षण इस बात को स्वीकारते हैं कि शरीर में गठिया, रक्तचाप और हृदयरोग जैसे रोगों का कारण हमारे भाव ही हैं। इनमें भी क्रोध और भय सबसे प्रमुख हैं।

संसार के समस्त विचारकों ने एक स्वर से भावों की शक्ति और उसके असाधारण महत्त्व को स्वीकार किया है। संक्षेप में जीवन की विभिन्न गतिविधियों का संचालन करने में हमारे भावों का ही प्रमुख हाथ रहता है। हम जो कुछ भी करते हैं भावों की प्रेरणा से ही करते हैं।अतः इस संसार की प्रत्येक गतिवधि भाव के अधीन है। सम्पूर्ण संसार भावमय है।

रवि चन्द्र गौड़
16/07/2020


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3 Comments

  1. अतिशय उच्चकोटि की रचना जो लेखक के वृहद ज्ञान एवं लेखन भाव को प्रदर्शित करती है।

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