अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
वर्तमान में जी डी पी चर्चा का विषय है।देश में इसे ले कर हाय - तौबा मची हुई है। जो अर्थशास्त्र नहीं जानते वो भी इसे लेकर बड़ी - बड़ी बातें कर रहे हैं। सदन से लेकर चाय की नुक्कड़ तक सब सरकार पर उंगलियां उठा रहे है।
ऐसे में राहत इंदौरी की कुछ पंक्तियां प्रासंगिक है:-
"उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो
ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो..."
आइए अब जी डी पी को समझते हैं,
जीडीपी को सबसे पहले अमेरिका के एक अर्थशास्त्री साइमन ने 1935-44 के दौरान इस्तेमाल किया था। इस शब्द को साइमन ने ही अमेरिका को परिचय कराया था।
जीडीपी किसी खास अवधि के दौरान वस्तु और सेवाओं के उत्पादन की कुल कीमत है।आसान शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि कुल घरेलू उत्पाद(GDP) वह आय है वह जो देश के अंदर उत्पन्न होती हैं। चाहे देशवासियों द्वारा या दूसरे भी जो देश के उत्पादन में लगे है,उनके द्वारा उत्पन्न कुल आय ही GDP है। भारत में जीडीपी की गणना हर तीसरे महीने यानी तिमाही आधार पर होती है। ध्यान देने वाली बात ये है कि ये उत्पादन या सेवाएं देश के भीतर ही होनी चाहिए।जीडीपी को दो तरह से प्रस्तुत किया जाता है। वास्तव में उत्पादन की कीमतें महंगाई दर के साथ घटती-बढ़ती रहती हैं। जीडीपी को मापने के दो तरीके हैं- पहला पैमाना है कांस्टैंट प्राइस। इसके तहत जीडीपी की दर व उत्पादन का मूल्य एक आधार वर्ष में उत्पादन की कीमत पर तय किया जाता है। दूसरा पैमाना करेंट प्राइस है जिसमें उत्पादन वर्ष की महंगाई दर इसमें शामिल होती है।
देश में एग्रीकल्चर, इंडस्ट्री और सर्विसेज़ यानी सेवा तीन प्रमुख घटक हैं जिनमें उत्पादन बढ़ने या घटने के औसत आधार पर जीडीपी दर तय होती है. ये आंकड़ा देश की आर्थिक तरक्की का संकेत देता है. अगर आसान भाषा में कहें तो मतलब साफ है कि अगर जीडीपी का आंकड़ा बढ़ा है तो आर्थिक विकास दर बढ़ी है और अगर ये पिछले तिमाही के मुक़ाबले कम है तो देश की माली हालत में गिरावट का रुख़ है।
सरकारी संस्था CSO ये आंकड़े जारी करती है।
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी (CSO) देशभर से उत्पादन और सेवाओं के आंकड़े जुटाता है इस प्रक्रिया में कई सूचकांक शामिल होते हैं, जिनमें मुख्य रूप से औद्योगिक उत्पादन सूचकांक यानी (IIP) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी (CPI) हैं।
जीडीपी गिरने से अर्थव्यवस्था में और अधिक असमानता होगी। अमीरों के मुकाबले गरीबों पर इसका अधिक असर हो सकता है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ सकती है। जीडीपी में गिरावट से रोजगार दर में भी कमी आएगी।
अब एक उदाहरण आप ले सकते है-
अगर साल 2011 में देश में सिर्फ़ 100 रुपये की तीन वस्तुएं बनीं तो कुल जीडीपी हुई 300 रुपये. और 2017 तक आते-आते इस वस्तु का उत्पादन दो रह गया लेकिन क़ीमत हो गई 150 रुपये तो नॉमिनल जीडीपी 300 रुपये हो गया।
यहीं बेस ईयर का फॉर्मूला काम आता है। 2011 की कॉस्टेंट कीमत (100 रुपये) के हिसाब से वास्तविक जीडीपी हुई 200 रुपये. अब साफ़-साफ़ देखा जा सकता है कि जीडीपी में गिरावट आई है।
अब जिन वस्तुओं का उत्पादन कम होगा या नहीं होगा वहां कर्मचारियों कि छटनी होगी रोजगार संकट उत्पन्न होगा। इसी प्रकार कच्चा माल की खरीद कम होगी जो मुख्यतः कृषि क्षेत्र से आता है वहां किसानों के लिए उत्पादन करना महंगा होता जाएगा। कम मूल्य पर उपलब्ध वस्तुओं होने वाली वस्तुओं को अब अधिक मूल्य पर खरीदने के लिए विवश होना पड़ेगा।मतलब मंहगाई बढ़ेगी। अगर जीडीपी बढ़ रही है, तो इसका मतलब यह है कि देश आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में अच्छा काम कर रहा है और सरकारी नीतियाँ ज़मीनी स्तर पर प्रभावी साबित हो रही हैं और देश सही दिशा में जा रहा है।जब अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन करती है, तो कारोबारी और ज़्यादा पैसा निवेश करते हैं और उत्पादन को बढ़ाते हैं क्योंकि भविष्य को लेकर वे आशावादी होते हैं। लेकिन जब जीडीपी के आँकड़े कमज़ोर होते हैं, तो हर कोई अपने पैसे बचाने में लग जाता है। लोग कम पैसा ख़र्च करते हैं और कम निवेश करते हैं। इससे आर्थिक ग्रोथ और सुस्त हो जाती है।
कुल मिलाकर कर आज की जीडीपी तभी बेहतर है जब उत्पादन में पिछले साल की तुलना में कमी न हो।
सामान्यतः वर्तमान जीडीपी समाज,समुदाय और देश के लिए समृद्धि और मुस्कान लाने वाला है। मगर तब जब आपका निर्यात आयात से अधिक हो और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग देश के अंदर हो रहा हो। जिससे बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो न हो।भारत अभी अपने निर्यात को बढ़ाने और आयात को घटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। निरंतर मेक इन इंडिया, लोकल फॉर वोकल, स्वदेशी अपनाओ आदि पर बल दिया जा रहा है। जिससे जी डी पी को स्थिर दर प्रदान की जा सके।
रवि चंद्र गौड़
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