अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
मेरी बात ( रचना - 10, स्वार्थ )
जब कभी जीवन में इस शब्द से सरोकार रखने वाले व्यक्तियों का सामना हमें करना पड़ता है, तब हमें एहसास होता है कि संबंध तो खोखले हो गए हैं। हमारा प्रत्येक संबंध स्वार्थ की नींव पर ही तैयार हो रहा है।स्वार्थ की इस इमारत के निर्माण में हमारा भी महत्वपूर्ण योगदान है। स्वार्थ की डोर से हम इस कदर जकड़े हुए है कि हमारा नैसर्गिक जीवन तो अब स्वार्थ रूपी स्नेहक से ही आगे बढ़ रहा है।
कबीरदास जी ने तो यहां तक कहा है कि,
स्वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान
बिन स्वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में सभी स्वार्थ के कारण सगे बनते हैं। सारा संसार ही स्वार्थ के लिये अपना बनता है। परंतु चतुर व्यक्ति वही है जो बिना किसी स्वार्थ के गुणी आदमी का सम्मान करते हैं।
स्वार्थ शब्द पर विचार करें तो स्व और अर्थ दो शब्दों से बना हुआ यह शब्द प्रतीत होता है। ‘स्व’ अपने को कहते हैं और अर्थ के अनेक अर्थ हो सकते हैं जिसमें धन, सम्पत्ति व अन्य प्रयोजन की सिद्धि भी मानी जा सकती है। स्वार्थ शब्द अपने आप में बुरा नहीं है,कई बार यह हितकारी भी सिद्घ हो सकता है। परन्तु स्वार्थी मनुष्य अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए अनेक बार दूसरों के हितों को हानि पहुंचा कर अपना हित अनुचित साधनों से व अधर्म पूर्वक करता है, यह बुरा एवम् अनर्थकारी हो सकता है। वस्तुतः स्वार्थ उसे कहते हैं जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो पर आत्मा की उपेक्षा करता हो। आज स्वार्थवृत्ति इतनी अधिक बढ गई है कि अपने सामान्य स्वार्थ के लिए भी व्यक्ति अन्य जीवों के प्राण तक ले लेता है। स्वार्थ की भावना मनुष्य को मतलबी बनाता है। स्वार्थ से लोग मरते है , और अपना जीवन दूसरों से ईर्ष्या करते हुए जीते है।स्वार्थ मानव को गलत रास्ते और सबसे दूर ले जाता है। मनुष्य का स्वार्थी मन किसी की खुशी नहीं देख सकता है। स्वार्थ के रास्ते चलने पर हमें कुछ हासिल नहीं होता है।
जन्म के रूप में जीवन का प्रारम्भ भी कहीं न कहीं स्वार्थ की देन होती हैं। माता - पिता जन्म के पूर्व ही पुत्र प्राप्ति के स्वार्थ से ग्रसित होते है कि पुत्र के कंधा देने से मोक्ष मिलेगा। इस मान्यता के अनुसार कितनी ही कन्या संतति (जिनका जन्म भी नहीं हुआ था) हमारे स्वार्थ की भेंट चढ़ जाती है।
जन्म के बाद संतान के लालन - पालन के पीछे भी स्वार्थ की यह भावना काम करने लगती हैं कि ये हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।
वास्तव में बच्चे को हम स्वयं ही स्वार्थी बनने या स्वार्थ के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। हम अपने बच्चे के प्रत्येक कार्य की तुलना दूसरो से करने लगते हैं। उसकी प्रत्येक उपलब्धि के लिए हम उसे लक्ष्य दे देते हैं,जिसकी पूर्ति के लिए वह स्वतः ही स्वार्थ के पथ पर अग्रसर होने लगता है।
बिना स्वार्थ प्रेम की भी सार्थकता की कल्पना नहीं की जा सकती हैं। एक प्रेमी अपने महबूब की एक झलक पाने के स्वार्थ को हृदय में संजोए रखता हैं। रहीम कवि ने अपने शब्दों में प्रेम में निहित स्वार्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि,
वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत
स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
रामचरिमानस में कहा गया है कि,
सुर नर मुनि सब कै यह रीति। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।
अर्थात देवता,मनुष्य,और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं।
प्रकृति में भी स्वार्थ के उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं। सूखे फूलों पर भंवरे नहीं मंडराते है क्योंकि मकरंद मिलने का स्वार्थ पूरा नहीं हो सकता है।
एक दुकानदार किसी भी तरीके से अपनी वस्तु को बेचने का स्वार्थ साथ ले कर व्यवसाय करता है।
एक परीक्षार्थी अधिक अंक पाने के स्वार्थ के साथ अपनी तैयारी करता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में, “हमारी शिक्षा स्वार्थ पर आधारित, परीक्षा पास करने के संकीर्ण मक़सद से प्रेरित, यथाशीघ्र नौकरी पाने का जरिया बनकर रह गई है जो एक कठिन और विदेशी भाषा में साझा की जा रही है। इसके कारण हमें नियमों, परिभाषाओं, तथ्यों और विचारों को बचपन से रटना की दिशा में धकेल दिया है। यह न तो हमें वक़्त देती है और न ही प्रेरित करती है ताकि हम ठहरकर सोच सकें और सीखे हुए को आत्मसात कर सकें।”
पत्नी अपने पति के अधिक कमाई का स्वार्थ मन में बसाए रखती है।
बच्चे अपनी प्रत्येक फरमाइश पूरी होने के स्वार्थ को ले कर चलते है।
एक राजनेता कुर्सी पाने का स्वार्थ के कर जनता के बीच अपने वायदों और आश्वासनों की घुट्टी पिलाता जाता है।
एक बीमा एजेंट अपने कमीशन के स्वार्थ में ग्राहकों के गले ही पड जाता है।
ईश्वर के मंदिर में भी तो लोग अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कर चढ़ावा चढ़ाने जाते हैं। मनुष्य चित्त की शांति हेतु ईश्वर की शरण में जाता है परन्तु वहां उसके स्वार्थ के नाना प्रकार के विचार उसे लक्ष्य से दूर कर देते हैं।
नौकरी में प्रोन्नति पाने का स्वार्थ तो किसी से छुपा है नहीं है,जिसके लिए लोग प्रत्येक प्रकार के हथकंडे अपनाने को तैयार रहते हैं।
प्रत्येक प्रकार की सेवा भी स्वार्थ के वशीभूत हो कर की जाती हैं,कोई नाम - प्रसिद्धि पाने के लिए,कोई धन पाने की इच्छा से,कोई विशेष हित साधन के लिए सेवा करता है।कोई सेवा के नाम पर व्यापार ही करने लगता है। इस संबंध में कबीरदास जी ने कहा है कि,
निज स्वारथ के कारनै, सेव करै संसार
बिन स्वारथ भक्ति करै, सो भावै करतार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में जो भी लोग सेवा करते हैं वह स्वार्थ के कारण करते हैं पर परमात्मा को तो वही भक्त भाते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के भक्ति करते हैं।
दुनिया में स्वार्थ सर्व-प्रधान है।पूरा संसार स्वार्थमय है। हर प्राणी सब से पहले अपने स्वार्थ को प्रधानता देता है, कोई व्यक्ति उस काम को करने के लिए तैयार नहीं होता, जिसमें उसे कुछ लाभ न हो। व्यक्ति भोजन भी इसी स्वार्थ से करता है कि शरीर का पोषण करना है। सांस भी जीवित रहने के स्वार्थ के कारण लेता है। हम वस्त्र भी इसी स्वार्थ के कारण पहनते है कि दूसरो को अच्छा दिखे और वो हमारी प्रशंसा करें। इस शरीर रूपी मशीन की देखभाल भी हम संसार मृत्यु को प्राप्त न हो इस स्वार्थ भावना से करते हैं।
अतः हमारे जीवन में सुख की चाह स्वार्थ की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। जिससे सभी प्राणी प्रत्येक कार्य में अपना निहित स्वार्थ ढूंढ़ते हैं और तदनुरूप व्यवहार भी करते हैं।
रवि चन्द्र गौड़
05/08/2020
5 Comments
यथार्थ ज्ञान
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुंदर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 15 मई 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ये जीवन ही पूरा स्वार्थ पर टिका है । अच्छा लरख ।
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