मेरी बात, (रचना - 13, रोटी)
जग का जीवनाधार,
धर्म भी मुझसे और,
अधर्म भी मेरी खातिर,
मैं रोटी हूं...
कर्म का आधार,
सुंदरता की वाहक,
क्षुधा का संतोष,
मैं रोटी हूं...
स्वास्थ्य की रक्षक,
अमीर की थाली में भी,
और गरीब की थाली में भी,
मैं रोटी हूं...
पाप और पुण्य की सीमारेखा,
न्याय की आंख की पट्टी,
इतिहास की गवाह,
मैं रोटी हूं...
हर व्यवसाय का उद्देश्य,
हर सोच की दिशा,
हर घटना की कारक,
मैं रोटी हूं...
सुख और दुःख की अनुभूति,
विभिन्न भावों की जननी,
मनुजता की पोषक,
मैं रोटी हूं...
कभी दो जून की,
कभी मेहनत की तो,
कभी दांत काटी,
मैं रोटी हूं...
नाम अनेक मेरे रूप बहुतेरे,
कहीं चपाती तो कहीं रूमाली,
हूं मैं सबकी प्रिया,
मैं रोटी हूं...
कर के खुद को विलीन उदर में,
पोषण का सहज वर देती,
आदि से अंत तक शक्ति का पर्याय,
मैं रोटी हूं...
बनती सबके कर्म की प्रेरणा,
कोई नहीं मेरा आलोचक,
पथ्य भी और पाथेय भी,
मैं रोटी हूं...
मेरे लिए ही होती राजनीति,
मेरे लिए ही छिड़ता समर,
व्यक्तित्व को गढ़ती हुई,
मैं रोटी हूं...
(पथ्य - रोगी के लिए उचित भोजन, पाथेय - मार्ग का भोजन)
रवि चंद्र गौड़
3 Comments
जबरदस्त
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteलाजवाब, यथार्थ का दर्शन कराती कविता
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