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अंतर्द्वद्व (कविता)

अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)


मेरी बात ( रचना - 1, अंतर्द्वद्व )

हो कर बावरा पूछ रहा है ये मन बारंबार मुझसे,

क्या नहीं पता तुझे ये अनजान डगर जीवन की।

जो तू बढ़ा रहा है अपने कदम नित आगे,
क्या है तुझे परवाह अपने संबंधों की।

हो कर विलग अपने ख्यालों के ताने - बाने से,
क्यों हुआ है तू बे - परवाह,बेखबर सा।

सोच तो ले एक बार तू,एक बार और सह तो ले तू,
अपने मन में मचे अंतर्द्वद्व  के घमासान प्रहार को।

अपनी नियति की जंजीरों से बंधा हुआ है तू,
क्योंकि तू मनुष्य है, मनुष्यता ही तो हैं तेरा जीवन आधार।

क्यों नहीं तोड़ देता तू अपनी विवशता की बेड़ियों को,
जो कर रही है तुझे दूर स्वयं में खो जाने से।

इक बार पूछ तो जरा ख़ुद से तू बना है,
अपने अंतर्द्वद्व से या अंतर्द्वद्व बना है तुझसे।

 रवि चन्द्र गौड़ 
10/07/2020




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