अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
मेरी बात, (रचना - 12, प्रयास)
समय की अविरल धारा के प्रवाह से,
क्या कोई विलग हो पाया है?
हम मनुष्य गर्वपूरित हो कर निकल पड़ते हैं,
इसका असफल सा प्रयास करने,
भूल कर सिकन्दर और अशोक को,
सोच कर कि हम ही है सर्वोपरि,
नहीं मानते अपनी किसी भी भूल को
लेते नहीं सबक अपने अतीत से,
रेत की मानिंद फिसल रहा है,
वक्त हमारे हाथों से,
और हम लगें है उन्हीं असफल प्रयासों में,
दे कर चुनौती प्रकृति की शक्तियों को,
मुंह की खाना हमारी नियति है,
अगणित अनुत्तरित प्रश्नों पर,
मानवता मौन ही रह जाती हैं,
पर प्रकृति तो अपना प्रभाव दिखाती जाती हैं।
बनती है प्रकृति जब मानवहंता,
त्राहि - त्राहि कर उठती है मानवता,
स्वीकार करने में क्या जाता हैं, कि
विफल हैं विज्ञान भी प्रकृति की शक्ति के आगे,
पर गर्वित मस्तिष्क बुनता रहता है,
कुटिलता के अपने ही ताने - बाने,
कोई कृत्रिम सूर्य बना कर,तो
कोई चांद पर पहुंच कर इठलाता है,
हंसती है प्रकृति भी मनुष्य के,
इन क्षणिक उपलब्धियों को देख कर,
बारंबार महसूस करके अपने प्रयासों की कमी को भी,
दिखता नहीं तुझे अपना बौनापन,
अपना बौनापन.......
अपना बौनापन .......
रवि चंद्र गौड़
7 Comments
यथार्थ से परिचय कराती! शत्रुघ्न कुमार पांडेय
ReplyDeleteधन्यवाद्
ReplyDeleteवाह....👍👍👍👌
ReplyDelete✔️
Deleteविज्ञान और प्रकृति दोनों की ही अपनी-अपनी महत्ता है ।
ReplyDeleteआज विज्ञान की उपलब्धि को कौन नकार सकता है?
धन्यवाद
ReplyDeleteसत्य
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