अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
मेरी बात, (रचना - 17,मैं हूं बेरोजगार.....)
पथ पर चलने से पहले कर लेता हूं,
पहचान अपने हौसलों के उड़ान की,
पीछे कदम खींच नहीं सकता अपने,
मैं हूं बेरोजगार.....
निश्चय की डोर से तो बंधा ही हूं मैं,
हर दिन सहेजता हूं अपने टूटे विश्वास को,
रात्रि के पहरों के बीच सुबह को खो कर,
मैं हूं बेरोजगार.....
रखता हूं नित सफलता की आस,
पहचान हूं मैं विश्व में राष्ट्र की,
है जनसंख्या में मेरी सबसे अधिक हिस्सेदारी,
मैं हूं बेरोजगार.....
सह कर अगणित तानों के प्रहार को,
व्यंग्यबाणों के आघात को भी छिपाकर,
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता हूं,
मैं हूं बेरोजगार.....
हर रोज पढ़ता हूं अख़बार और किताबें,
ढूंढता हूं विकल्प अपने प्रयासों से लक्ष्य के,
डिग्रियों के साथ होता हूं गौरवान्वित,
मैं हूं बेरोजगार.....
पर होता हूं शिकार तंत्र की विफलता का,
सरकारें बदल जाती हैं,पर मेरी व्यथा नहीं,
वायदों और आश्वासनों से छला गया हूं हर बार,
मैं हूं बेरोजगार.....
परीक्षाओं और परिणामों की अंतहीन प्रतीक्षा,
फिर उनके रद्द होने के शासन और न्याय,
के घालमेल से,परिचित भी हूं,
मैं हूं बेरोजगार.....
खड़ा हो जाता हूं हर बार समेटकर ,
अपनी इच्छाशक्ति को नए समर के लिए,
अपनी नियति को चुनौती देने एक बार और,
मैं हूं बेरोजगार.....
रवि चंद्र गौड़
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