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अच्छे दिन (कविता)

अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)

मेरी बात, (रचना -20, अच्छे दिन)


नोटबंदी और देशप्रेम की घुट्टी पी कर,
लोकतंत्र के साथ - साथ राजतंत्र के,
दर्शन तो करता चल,
मंहगाई की सुरसा का ग्रास तो बनता चल,
ताली और थाली सब बजा कर
सौगंध खा कर इस माटी की,
देश को तो बिकने दे जरा,
निजीकरण की गंगा में,गोते तो लगाने दे,
मन की बात में जी भर के बकवास तो होने दे,
हर बार करता हूं वायदा आम और खास से,
बहाऊंगा सुशासन की बयार,
पर चला देता हूं निजीकरण की आंधी,
रोजगार सृजन को कहकर,पद ही करता हूं समाप्त,
स्वरोजगार का विकल्प चाय और पकोड़े बताता हूं,
परिसम्पतियों के सौदे कर,
देता हूं कर्मचारियों के निकम्मेपन की दुहाई,
लोक कल्याणकारी राज्य की नीति को तार - तार कर,
पूंजीवाद की ओर बढ़ता हूं ,
न्याय पर हो शासन भारी,
ऐसी नीतियों का सृजन करता हूं,
दिखा कर राष्ट्रभक्ति का आइना जनता को,
कर्मचारियों की पेंशन,भत्ते बंद कर,
राजनीति के कर्णधारों को इसकी सौगात देता हूं,
कल्पनाओं में विचरते हुए मेरे मन,
न हो तू कभी भी विकल और दिग्भ्रमित,
झूठे वादों और आश्वासनों से,
जुमलों की फसल तो कटने दे जरा,
वक्त सबका आता है, हमारा भी आएगा,
अभी तुम्हारे अच्छे दिन है,
देश तो देशवासियों का ही रहेगा,
एक बार फिर आम चुनाव तो आने दे,
हमारे भी अच्छे दिन आएंगे........


रवि चंद्र गौड़




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