अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
मेरी बात ,(रचना - 21, कागज की नाव)
मोबाइल और इंटरनेट के दौर में,
कब बारिश आ कर चली जाती हैं,
कागज की नाव और वो बचपन की बारिश,
अब ढूंढे से भी नहीं मिलती,
कि खो गया सा है अब बचपन कहीं,
एक कसक सी अब फिर उठती हैं,
कि लौट आता बचपन भी ऋतुओं की तरह,
फिर से भींग कर बारिश की बूंदों से
भूल कर पिता की मार और मां की डांट,
नई कॉपियों के बीच से पन्ने निकाल कर,
बना कर कागज की नाव एक बार फिर
अपने सपनों को सैर करा लाते,
बादल तो आज भी बरसते हैं,
पर बच्चे से बड़े हो चुके हमलोग,
बसा रहे है संवेदनहीन संसार,
ईंट और कंक्रीट की दीवारों के बीच,
अब बालपन का सुख कहां?
कागज की नाव कहां?
रवि चंद्र गौड़
2 Comments
Wah!
ReplyDeleteधन्यवाद
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