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धरा मांग रही है विध्वंस(कविता)

अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)


मेरी बात,(रचना -23,धरा मांग रही है विध्वंस)

हे काल, हो कर कराल,
भरो हुंकार एक बार और,
करके अपना तांडव,
कर दो अब विप्लव, 
धरा मांग रही है विध्वंस,
अब न तो राम के वाण है,
और न ही परशुराम का परशु
और न ही कृष्ण का सुदर्शन,
है तो केवल  मनुज का अहंकार, 
शर्मसार हो रही हैं मानवता,
अट्टहास कर रही है दानवता,
चीत्कारों की गूंज से हो रहा,
गुंजायमान यह अम्बर सारा,
नैतिकताओं का कोई मोल नहीं,
आदर्शों की बात कौन करें अब,
जब न्याय ही सलीब पर हो,
रुपयों पर बिकता ईमान हो ,
संस्कार तो  केवल दिखावा है,
अब सरेआम लुटती है अस्मत,
मूक बन कर रहना बन गई हैं नियति,
अपमान के घूंट पीकर भी,
नहीं रहा सहज जीवन अब,
रोजगार तो अमीरों की बंदिनी है,
नहीं सुरक्षित मान और मर्यादा,
शिक्षा नहीं बनाती अब मनुष्य,
धर्म की आड़ में होता है व्यापार,
जिसकी लाठी उसकी भैंस अब ब्रह्मवाक्य है,
सत्ता के भूखे भेड़िए नोंच - खसोट रहे देश को,
लोकतंत्र की नित चढ़ती है बलि,
अधिकारों की हो रही हैं हत्या,
कर्तव्यों का निर्वहन कौन करें,
जब मर चुकी हो संवेदनाएं सारी,
नहीं आने वाला कोई अब,
 बनकर मानवता का संरक्षक,
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त,
कि कब आओगे बन कर तारणहार,
हे काल, हो कर कराल,
भरो हुंकार एक बार और,
करके अपना तांडव,
कर दो अब विप्लव, 
धरा मांग रही है विध्वंस.........


रवि चन्द्र गौड़





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