अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
मेरी बात, (रचना - 41, निर्वासन )
निर्वासन शब्द से हम सभी कभी न कभी दो - चार होते ही हैं। जीवन निर्वासन की अनंत गाथा है। नौ माह के बाद मां की कोख से निर्वासन की पीड़ा झेलने के बाद ही बाह्य जीवन में प्रवेश संभव हो पाता है। निर्वासन कभी आवश्यक तो कभी अनावश्यक भी होता है। निर्वासन यातना का क्रूरतम स्वरूप भी माना जा सकता है। यह निर्वासित व्यक्ति को जल्दी अर्थात एक बार नहीं मारता बल्कि खुद मे ही घुट - घुट कर मरने पर बाध्य कर देता है। चोट नहीं पहुँचाता है, मगर कचोटता है, ग्लानि की अनुभूति कराता है। यदि अच्छे कार्य के लिए, देशहित के लिए निर्वासन राजदंड के रूप में दिया जाता है तो वह ज्यादा दुखदाई नहीं होता। व्यक्ति अच्छे काम के नाम पर कठिनतम सजा भी काट लेता है। तिलक ने तो काला पानी की यातना सहते-सहते गीता का भाष्य ही लिख डाला था। आज़ादी के दीवानों ने क्या-क्या नहीं सहा, परन्तु धरती पुत्री सीता तो निर्वासन के दर्द को नहीं सह पाई और धरती में समा गई, क्योंकि यह निर्वासन राजदंड का प्रतिफल नहीं था बल्कि अपनों के द्वारा अपने का निर्वासन था। जन्म से मृत्यु तक किसी न किसी रूप में यह निरंतर हमे नवीनता की ओर गतिशील करता है और हमेशा सीखने के लिए प्रेरित भी करता है।
उम्र के विभिन्न पड़ावों पर हमे किसी न किसी रूप में इसके दंश को झेल कर खुद को इसके अनुकूल बनाना ही पड़ता है। एक छात्र या छात्रा को अपने अध्ययन के क्रम में घर - परिवार, बंधु - बांधवों और स्नेहीजनों से दूर रहते हुए भी अध्ययन करना पड़ता है। पढ़ाई पूरी करके रोजगार की खोज और रोजगार मिल जाने पर दूरस्थ इलाकों में रह कर काम करना निर्वासन का ही प्रतिरूप है।
इतिहास की बात करें तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी 14 वर्षो की निर्वासन की अवधि व्यतीत करनी पड़ी थी। योगेश्वर श्रीकृष्ण को भी अपनी राजधानी से निर्वासित हो कर नए नगर को बसाना पड़ा था। पांडवो को भी अज्ञातवास के रूप में निर्वासित जीवन जीना पड़ा था।
बहुधा हम सभी मे से भी उपेक्षित,तिरस्कृत और जीवन से निराश व्यक्ति खुद को निर्वासन की ओर ढकेल देते हैं। जीवन को रसहीन,नीरस और असंतोष की परिणति मान कर किसी तरह जीना विवशता बन जाती है। लोगो से और समूह से खुद को निर्वासित करके अपने क्रियाकलापों को करना ही इन्हे पसंद आता है। अपनी अधूरी इच्छाओं को ह्रदय मे संचित किए हुए वे काल के ग्रास बन जाते हैं।
हिंदी चलचित्र " आदमी " में गीतकार " शकील बदायूंनी " द्वारा रचित और " मोहम्मद रफी " द्वारा गायी गई गीत की कुछ पंक्तियां यहां बहुत ही प्रासंगिक है -
" टूट चुके सब प्यार के बंधन, आज कोई ज़ंजीर नहीं
शीशा-ए-दिल में अरमानों की, आज कोई तस्वीर नहीं
अब शाद हूँ मैं, आज़ाद हूँ मैं, कुछ काम नहीं है आहों से"
रवि चन्द्र गौड़
1 Comments
बहुत ही रोचक एवं हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति है गौड़ सर !
ReplyDelete👆कृप्या अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करें। आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए बहुमूल्य हैं।