अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)
मेरी बात ,(रचना - 28, प्रेम )
प्रेम क्या है, यह चिंतन का बिंदु जगत के आरंभ से रहा है। कुछ मानते है कि प्रेम एक एहसास है तो कुछ के अनुसार प्रेम भावनाओं का प्रवाह मात्र है। कुछ मानते है कि किसी को पाना प्रेम है तो कुछ के अनुसार खुद को खो देना प्रेम है। कुछ के लिए यह बंधन तो कुछ के लिए मुक्ति है। वहीं कुछ के लिए जीवन तो कुछ के लिए मरण भी हो सकता हैं। यह विषयों की अनुभूति मात्र है।ऐसे ही अनेकों विचारों में प्रेम प्रतिबिंबित होता ही रहता है।
प्रेम परमानंद की अनुभूति कराता है क्योंकि इसमें तेरा - मेरा का भाव समाप्त हो जाता है और व्यक्ति माया - मोह से परे एक ऐसे संसार में जीना चाहता है जहां वह और उसके प्रेम (प्रेमिका/इष्ट/अभीष्ट) के अलावा और कोई भी न हो। उसे संसार के समस्त सुख इसी में प्रतीत होते हैं।
प्रेम विरह/पीड़ा की अनुभूति भी कराता है। प्रियतम/प्रियतमा से एक पल का भी अलगाव वर्षों के समान प्रतीत होने लगता है।प्रियतम/प्रियतमा के सामने आते ही मुख पर प्रसन्नता के भाव झलकने लगते है। प्रतीत होता है कि अनुपम निधि की प्राप्ति हो गई। यही वह विरह पीड़ा थी कि महाकवि कालिदास पत्नी की एक झलक पाने के लिए इतने व्यग्र हुए कि तेज बारिश , उफनती नदी की परवाह किए बिना मुर्दे की सहायता से नदी पार कर के सर्प को रस्सी समझ कर पत्नी के पास जा पहुंचे थे। इस प्रेम ने जहां उन्हें पीड़ा दी वही उन्हें साहित्य की विधा का सिरमौर भी बना दिया।
प्रेम ईश्वर की प्राप्ति का साधन भी है जो एक बार ईश्वर से प्रेम कर ले फिर उसे किसी भी सांसारिक सुख की कामना नहीं रह जाती है। यह ईश्वर के प्रति प्रेम ही था जिसके बल पर ध्रुव ने समस्त कठिनाईयों का सामना करते हुए ईश्वर की अटल भक्ति को प्राप्त किया। प्रेम ने ही ध्रुव को इतिहास में अमर दिया।इसकी सार्थकता का अनुभव हम तब कर पाते हैं, जब स्वयं हम इसके स्वरूप को अंगीकार कर लेते हैं। कहा भी गया है:-
धनि रहीम गति मीन की जल बिछुरत जिय जाय
जियत कंज तजि अनत वसि कहा भौरे को भाय।
मछली का प्रेम धन्य है जो जल से बिछड़ते हीं मर जाती है।
भौरा का प्रेम छलावा है जो एक फूल का रस ले कर तुरंत दूसरे फूल पर जा बसता है।जो केवल अपने स्वार्थ के लिये प्रेम करता है वह स्वार्थी है।
वर्तमान जगत में प्रेम शरीर से प्रारंभ हो कर शरीर पर खत्म हो जाती हैं। प्रेम आकर्षण और वासना का पर्याय बन चुका है। जब तक शरीर का आकर्षण है और वासना की पूर्ति हो रही हैं, तभी तक प्रेम है। जिस दिन आकर्षण खत्म हुआ या शरीर उम्र के प्रभाव में आ गया उसी समय से प्रेम भी समाप्त हो जाता है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह हमेशा एक चीज पर टिक कर नहीं रह सकता हैं, उसका चंचल मन हमेशा बाहरी चकाचौंध की तरफ़ आकर्षित होता ही है। घर पर अत्यंत रूपवती और गुणवती पत्नी हो फिर भी निगाहें दूसरी स्त्री पर टिकेंगी ही । उसी प्रकार हर जरूरत का ख्याल रखने वाला , आपकी एक बात पर अपनी खुशी का त्याग करने वाला पति हो मगर फिर भी दुसरे पुरुष से तुलना जरुर करेंगे।
इसके अनेक स्वरूप है, किसी को अपनी आवाज से, किसी को अपने सुंदर शरीर से, किसी को अपनी विद्वता से, किसी को प्रकृति से, किसी को अपने कार्य से, किसी को दूसरों की मदद करने में, किसी को समाजसेवा से, किसी को राजनीति से प्रेम होता है।
अगर देखा जाए तो प्रेम की अनुभूति इस संसार की प्रत्येक वस्तु से होती हैं। सम्पूर्ण जगत प्रेममय है। वन्य जीव हिंसक और खूंखार हो सकते है मगर आपस में प्रेम से मिल कर रहते हैं। त्रेता युग में भगवान श्री राम ने भी भ्रातृत्व प्रेम, पत्नी प्रेम, प्रजा प्रेम का अनुपम आदर्श हम मनुष्यों के लिए प्रस्तुत किया। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने जिस प्रेम का उदहारण जगत के समक्ष प्रस्तुत किया वो अनुकरणीय है क्योंकि इसमें केवल और केवल विशुद्ध प्रेम का भाव निहित था। इसमें वासना, व्याभिचार, लंपटपन का लेशमात्र भी समावेश नहीं था।
कवियों ने भी अपनी रचनाओं में प्रेम को उचित स्थान दिया है
या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।
इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है,वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात॥
इस दोहे में बिहारी ने दो प्रेमियों के बीच में आँखों ही आँखों में होने वाली बातों को दर्शाया हैं । वो कहते हैं की किस तरह लोगो के भीड़ में होते हुए भी प्रेमी अपनी प्रेमिका को आँखों के जरिये मिलने का संकेत देता हैं । प्रेमिका अस्वीकार कर देती हैं, प्रेमिका के अस्वीकार करने पर प्रेमी मोहित हो जाता हैं ।जिससे प्रेमिका रूठ जाती हैं, बाद में दोनों मिलते हैं और उनके चेहरे खिल उठते हैं । लेकिन ये सारी बातें उनके बीच आँखों से ही होती हैं।
प्रेम की प्राप्ति समर्पण द्वारा की जा सकती हैं। इस संबंध में कबीर ने भी कहा है-
प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय !
राजा पिरजा जेहि रुचे, शीश देई लेजाए !!
प्रेम खेत में नहीं उपजता, प्रेम बाज़ार में भी नहीं बिकता । चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा, यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा । त्याग और समर्पण के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता । प्रेम गहन-सघन भावना है, कोई खरीदी / बेचे जाने वाली वस्तु नहीं ।
ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि में हर तरफ़ प्रेम बिखरा पड़ा है केवल आवश्यकता है एक ऐसे दृष्टिकोण की जो सही मायने में मनुष्य को मनुष्यता की ओर ले जाएं दानवता या वहशीपन की ओर नहीं। तभी इसकी सार्थकता है।
रवि चन्द्र गौड़
3 Comments
अतिशय उच्चकोटि की रचना है ।
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteOk
ReplyDelete👆कृप्या अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करें। आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए बहुमूल्य हैं।