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Thursday 17/04/25, week 16
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मिट्टी के खिलौने (लघुकथा)

अभिव्यक्ति : कुछ अनकही सी (abhivyaktibyrcgaur)


मेरी बात ,(रचना - 23, मिट्टी के खिलौने )

लॉकडाउन के कारण काम बंद हो गया था। ऐसे में पत्नी और बच्चों के साथ शहर से गांव आना पड़ा था,और वर्षों बाद मां और पिताजी हमें गांव आया देख कर काफी खुश थे। बच्चे दिन भर अपने दादा - दादी के पास रह कर खेल रहे थे, कहानियां सुनते और अपना वह बचपन जीने की कोशिश कर रहे थे,जो उन्हें शहर में कभी नहीं मिल पाता। गांव का घर आज भी कच्चा था। मिट्टी की फर्श, हवादार कमरे,खुला वातावरण सब कुछ आज एक सपने की तरह प्रतीत हो रहा था कि मैं आज फिर अपने 20 साल पीछे लौट आया हूं।  मैं अभी इन ख्यालों में ही था कि मां के पुकारने से मेरी तंद्रा टूटी कि बेटा ज़रा आलमारी के ऊपर से खिलौनों का बक्सा तो उतार देना बच्चों को खिलौने देने हैं। मैं भी उत्सुकतावश बक्सा उतार कर मां के पास बैठ कर खिलौनों को देखने लगा। मां ने मेरे सारे मिट्टी के खिलौने संभाल कर रखे थे। मिट्टी का सिपाही,घोड़ा गाड़ी, सीटी, जहाज,राजा - रानी आदि अनगिनत खिलौनों से पूरा बक्सा भरा पड़ा था, जिनके साथ मै कभी खेला करता था। अपने बच्चों को उन्हीं खिलौनों से खेलते देख कर मुझे भी आज उन्हीं जैसा बनने की इच्छा हो रही थी कि कैसे विद्यालय से आने के बाद उन मिट्टी के खिलौनों से मै अपने मित्रों के साथ अनेकों प्रकार के खेल खेला करता था। पूरा बचपन पुनः मेरे आंखो के सामने फिर से घटित हो रहा था और मैं मूकदर्शक बना बच्चों को खेलते हुए देख रहा था।

रवि चन्द्र गौड़

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